राष्ट्रीय झंडे के इतिहास में सन् 1923 अत्यंत महत्वपूर्ण वर्ष रहा। नागरिक अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ करने की संभावनाओं का पता लगाने के लिए हकीम अज़मल खान की अध्यक्षता में अवज्ञा जांच समिति नियुक्त की गई थी हकीम अज़मल खान के अतिरिक्त मोतीलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, सी. राजगोपालाचारी, जमनालाल बजाज, सेठ छोटानी एवं डॉक्टर एम. ए. अंसारी इस समिति के सदस्य थे। इस समिति ने पूरे देश का दौरा किया था।
यह दल 10 जुलाई 1922 को जब जबलपुर पहुंचा तब उनका नागरिक अभिनंदन किया गया एवं टाउन हॉल पर “स्वराज ध्वज (चरखा ध्वज) फहराया गया था। सार्वजनिक स्थान पर झंडा रोहण एवं नागरिक अभिनंदन किया जाने से इंग्लैंड में खलबली मच गई। कर्नल येट ने हाउस ऑफ कॉमंस में यह मामला उठाया और पूछा जबलपुर नगर पालिका ने क्रांतिकारी झंडा है वहां कैसे लग गया? तब ब्रिटिश भारत सरकार ने इसकी पुनरावृत्ति न होने का आश्वासन दिया।
राजा जी, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, सेठ जमनालाल बजाज आदि का एक शिष्ट मंडल जो को 11 मार्च 1923 को जबलपुर आना था। जबलपुर नगर पालिका के सदस्यों ने डिप्टी कमिश्नर से शिष्ट मंडल के सम्मान में नगर पालिका भवन पर (जो विक्टोरिया हॉस्पिटल के बाजू में है) स्वराज झंडा फहराने की अनुमति मांगी जो नहीं दी गई। तब यह तो प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया। परिणामत: सारे देश में एक तूफान खड़ा हो गया।
जबलपुर के डिप्टी कमिश्नर ने नागरिक समारोह रोकने के लिए 11 मार्च 1923 को टाउन हॉल (नगर पालिका भवन) पर डेरा डाल दिया। कांग्रेस ने तिलक भूमि में स्वागत समारोह का आयोजन कर लिया। राजा जी और डॉक्ट राजेन्द्र प्रसाद ने राष्ट्रीय झंडे की प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए लोगों का आवाहन किया।
सेंट्रल प्रोविजंस कांग्रेस समिति के अध्यक्ष पंडित सुंदरलाल ने शिष्ट मंडल को आस्वस्त किया कि,” सेंट्रल प्रोविजंस की जनता राष्ट्रीय झंडे की प्रतिष्ठा के लिए हर प्रकार के त्याग के लिए तैयार रहेगी। उन्होंने घोषणा की कि, “2000 सत्याग्रही की भारती, रुपए 5000 का एकत्रीकरण एवं जब तक 500 चरखे चलाना शुरु नहीं होते तब तक में उपवास रखेंगे।”
स्थानीय कांग्रेसी/जबलपुर के नागरिक तत्काल उनके प्रतिज्ञा पूरी करने का प्रबंध करने लगे। पूरे जबलपुर में खलबली मच गई इस प्रकार जबलपुर से “झंडा सत्याग्रह” की शुरुआत हो गई। भारतियों को झंडे की शक्ति का एहसास हो गया। रोचक घटनाक्रम(बोल्ड)
18 मार्च 1922 को गांधी जी को “यंग इंडिया” पत्रिका में राजद्रोहात्मक (अंग्रेजों की नजर में) लेखन के फलस्वरुप 6 वर्ष कारावास की सजा दी गई। उसके 1 वर्ष पूर्ण होने पर 18 मार्च 1923 को जबलपुर वासियों ने तिलक भूमि से ओमती पुल के रास्ते सिविल लाइन तक एक बड़ा जुलूस निकाला। जुलूस को ओमती पुल क्लॉक टावर पर सहायक पुलिस सुपरिटेंडेंट ने रोक लिया और कुछ शर्तों पर अनुमति देने को तत्पर था।
पंडित सुंदरलाल जैन ने कहा जुलूस में 10 लोग रहेंगे, दसों व्यक्ति मुंह पर कपड़ा बांध लेंगे लेकिन तिरंगा अवश्य रहेगा। अंत में उन्होंने कहा “भले ही एक व्यक्ति मुंह पर कपड़ा बांधकर जाए पर उसके साथ तिरंगा तो रहेगा।”
जब पंडित सुंदरलाल जैन और सहायक पुलिस सुपरिंटेंडेंट के मध्य वार्तालाप चल रहा था तभी उस्ताद प्रेमचंद अपने तीन साथियों सीताराम जाधव, परमानंद जैन और खुशाल चंद्र जैन के साथ पुलिस की घेराबंदी तोड़कर टाऊनहाल पहुंचे जो विक्टोरिया स्थल के प्रांगण में था और टाउन हॉल के ऊपरी गुम्बद पर स्वराज ध्वज फहरा दिया। चारों को गिरफ्तार कर झंडा जप्त कर लिया गया।
उधर जब पंडित सुंदरलाल जैन को सहायक पुलिस सुपरिटेंडेंट में अनुमति नहीं दी तो उन्होंने कहा कि, ” मैं अपने विवेकानुसार तथा राष्ट्रीय झंडे के सम्मान के अनुरूप कोई भी कार्य करने का अपना अधिकार सुरक्षित रखता हूं जैसा कि मैं उनको(ASP) बता दिया है, यह राष्ट्रीय झंडा विद्रोह का नहीं शांति और प्रेम का झंडा है।”
इस प्रकार झंडा आंदोलन जबलपुर से प्रारंभ हुआ जो बाद में पंडित सुंदरलाल जैन को 6 माह की कैद होने से उन्होंने अपना उत्तराधिकारी महात्मा भगवानदीन को नामित कर दिया। मार्गदर्शक भगवानदीन ने आंदोलन जबलपुर से नागपुर स्थानांतरित कर दिया।
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